बिहार उपचुनाव: सुशासन जिनका मुद्दा था आज परिवारवाद के हो गए कायल
पटना। बिहार में चार विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में परिवारवाद और बाहुबल के रंग कुछ ज्यादा ही गहरे हो गए हैं। हद तो यह है कि कल तक…
पटना। बिहार में चार विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में परिवारवाद और बाहुबल के रंग कुछ ज्यादा ही गहरे हो गए हैं। हद तो यह है कि कल तक बेहतर सुशासन जिनका मुद्दा था, आज बाहुबल के वे भी कायल हो गए हैं। चुनाव का यह रंग तब दिख रहा है, जब इसे आगामी विधानसभा चुनाव के पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है।
राज्य में चार विधानसभा सीटों तरारी, इमामगंज, बेलगंज और रामगढ़ में 13 नवंबर को चुनाव होना है। वजह यह है कि तरारी के विधायक सुदामा प्रसाद, इमामगंज के विधायक जीतन राम मांझी, रामगढ़ के विधायक सुधाकर सिंह और बेलागंज विधानसभा के विधायक सुरेंद्र यादव सांसद बन गए हैं और इस चुनाव का नजारा है कि प्रमुख दलों ने जीत के समीकरण में परिवारवाद का सहारा लिया है।
बेलागंज विधानसभा की पहचान बाहुबली सुरेंद्र यादव से है। करीब आठ बार के विधायक रहे सुरेंद्र यादव के जीतने के बाद यह विधानसभा क्षेत्र सुरेंद्र के लिए विरासत जैसी हो गई। यही वजह है कि सुरेंद्र जब सांसद बने तो अपने युवराज विश्वनाथ यादव को बेलागंज की विरासत सौंप गए। इनके विरुद्ध दम दिखा रही जदयू की मनोरमा देवी पर भी परिवारवाद का आरोप लगता है। जदयू उम्मीदवार मनोरमा देवी गया के चर्चित बाहुबली बिंदेश्वरी प्रसाद यादव की पत्नी हैं। हालांकि मनोरमा देवी अपने पुत्र रॉकी यादव को बेलागंज विधानसभा से चुनाव लड़ाना चाहती थीं, पर एक हत्याकांड के अभियुक्त बन जाने के कारण जदयू नेतृत्व ने मनोरमा देवी को टिकट दिया।
मनोरमा देवी को लेकर राजनीतिक गलियारों में भी आवाज उठने लगी है कि आखिर सुशासन की बात करने वाली पार्टी ने मनोरमा को टिकट क्यों दिया, जिसके घर पर एनआईए का छपा पड़ा और 4.3 करोड़ रुपये और 10 हथियार मिले थे। इसके साथ साथ मनोरमा देवी के नक्सल कनेक्शन का भी आरोप लगाया था। बहरहाल मनोरमा देवी को चुनावी मैदान में उतरकर जदयू का सुशासन सवालों के घेरे में आ गया।
रामगढ़ विधानसभा सीट की पहचान राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह से थी। जगदानंद सिंह 1985 से 2005 तक लगातार यहां से विधायक रहे। बीच में अंबिका यादव विधायक रहे, लेकिन 2020 के रामगढ़ विधानसभा चुनाव में राजद ने परिवारवाद का परचम लहराते जगदानंद सिंह के बड़े बेटे सुधाकर सिंह को मैदान में उतारा। सुधाकर सिंह ये चुनाव जीते और कृषि मंत्री बने गए।