पितृ पक्ष में दाढ़ी-बाल कटवाना क्यों है वर्जित? काशी के विद्वान से जानें धार्मिक और वैज्ञानिक कारण
वैदिक पंचांग के अनुसार पितृ पक्ष की शुरुआत भाद्रपद पूर्णिमा से होती है और यह आश्विन माह की अमावस्या तिथि पर समाप्त होता है. इन्हें बोलचाल की भाषा में ‘श्राद्ध’…
वैदिक पंचांग के अनुसार पितृ पक्ष की शुरुआत भाद्रपद पूर्णिमा से होती है और यह आश्विन माह की अमावस्या तिथि पर समाप्त होता है. इन्हें बोलचाल की भाषा में ‘श्राद्ध’ भी कहा जाता है और इस अवधि को पितरों की कृपा प्राप्ति के लिए उत्तम माना गया है. इस साल पितृपक्ष 17 सितंबर से 02 अक्टूबर तक रहने वाला है. इस दौरान बाल और दाढ़ी न कटवाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. यह एक ऐसा समय होता है जब लोग अपने पितरों को श्रद्धांजलि देने के लिए विभिन्न अनुष्ठान और पिंडदान करते हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों पितृ पक्ष के दौरान बाल और दाढ़ी कटवाने को अशुभ माना जाता है? इस विषय पर प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य पंडित संजय उपाध्याय ने धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों दृष्टिकोण से प्रकाश डाला है.
पंडित संजय उपाध्याय के अनुसार, पितृ पक्ष में बाल और दाढ़ी न कटवाने की परंपरा का धार्मिक आधार पितरों के प्रति सम्मान और श्रद्धा से जुड़ा है. यह समय पितरों को याद करने और उनकी आत्मा की शांति के लिए अनुष्ठान करने का होता है. इस दौरान बाल और दाढ़ी न कटवाने को पितरों के प्रति आदर का प्रतीक माना जाता हैं.
क्या है धार्मिक आधार?
पंडित संजय उपाध्याय ने बताया कि पितृ पक्ष को एक प्रकार का शोककाल माना जाता है, जिसमें परिवार के सदस्यों को अपने पितरों को सम्मान देने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से संयमित रहने की सलाह दी जाती है. बाल और दाढ़ी काटने को इस शोक के दौरान अशुभ माना जाता है, क्योंकि इसे पितरों की स्मृति के प्रति असम्मान के रूप में देखा जाता है. पितृ पक्ष के दौरान संयम, साधना, और त्याग पर जोर दिया जाता है. बाल और दाढ़ी न काटकर व्यक्ति अपने पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा और संयम का प्रदर्शन करता है.
क्या है वैज्ञानिक आधार?
पंडित संजय उपाध्याय ने बताया कि इस परंपरा का वैज्ञानिक आधार भी है, जो प्राचीन काल से हमारे पूर्वजों की गहन समझ को दर्शाता है. पितृ पक्ष का समय मानसून के बाद आता है, जब मौसम में बदलाव होता है. इस समय बाल और दाढ़ी न काटने से शरीर को ठंड से बचाया जा सकता है, क्योंकि बाल और दाढ़ी शरीर को प्राकृतिक रूप से गर्म रखने में मदद करते हैं. यह शरीर को बीमारियों से बचाने का एक पारंपरिक तरीका हो सकता है.
ये भी है एक वजह
पंडित संजय उपाध्याय ने बताया कि पुराने समय में सैलून और बारबर के उपकरणों की स्वच्छता की व्यवस्था उतनी अच्छी नहीं होती थी. पितृ पक्ष के दौरान, जब लोग अपने घरों से कम निकलते थे, तो बाल और दाढ़ी न कटवाना संक्रमण के जोखिम से बचाने का एक तरीका हो सकता था.
कैसे शुरू हुई ये प्रथा
पंडित संजय उपाध्याय ने बताया कि इस परंपरा की उत्पत्ति के पीछे एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ भी है. प्राचीन भारत में पितृ पक्ष को बहुत ही पवित्र समय माना जाता था, जिसमें पितरों की आत्मा की शांति के लिए विशेष अनुष्ठान किए जाते थे. इस दौरान किसी भी प्रकार का श्रृंगार या शारीरिक सजावट को अनुचित माना जाता था, क्योंकि यह पितरों के शोककाल का उल्लंघन करता.